
सरकार जब किसी योजना को लाती है, तो जनता की पहली प्रतिक्रिया होती है—”अब क्या नया तमाशा शुरू हो गया?” लेकिन कुछ योजनाएं ऐसी होती हैं, जिनमें वाकई दम होता है, और “उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना” (Production Linked Incentive – PLI) उन्हीं में से एक है। यह योजना ठीक वैसी ही है जैसे जिम जाने का सालभर का मेंबरशिप पास—अगर मेहनत करोगे तो बॉडी बनेगी, वरना पैसे डोनेट करके घर बैठो!
इस लेख में हम देखेंगे कि पीएलआई योजना असल में क्या है, इसे किन-किन क्षेत्रों में लागू किया गया है, और इसका असर कितना हुआ है—यानि “सरकार ने प्रोटीन शेक दिया, लेकिन बॉडी बनी या नहीं?”
पीएलआई योजना: दवाई कड़वी है, पर असरदार है?
पीएलआई योजना का जन्म सरकार की उस चिंता से हुआ था, जो हमें अपने ही देश में बनी चीज़ों पर गर्व करने के लिए मजबूर करना चाहती है। “आत्मनिर्भर भारत” मिशन को बूस्ट देने के लिए सरकार ने सोचा कि कंपनियों को थोड़ा पुश दिया जाए—बिल्कुल वैसे ही जैसे माँ-बाप बच्चों को इंजीनियरिंग में धकेलते हैं, फिर भले ही उनका मन डीजे चलाने में ही क्यों न हो!
सरकार ने उद्योगों से कहा—”भाई, तुम अगर ज्यादा उत्पादन करोगे, तो हम तुम्हें पैसा देंगे!” यह ठीक वैसे ही है जैसे कोई टीचर कहे कि “अगर होमवर्क पूरा करोगे तो टॉफी मिलेगी”—अब सवाल यह है कि बच्चे वाकई पढ़ाई करेंगे या टॉफी पाने के लिए ही ड्रामा करेंगे?
सरकार का मानना था कि इससे देश में उत्पादन बढ़ेगा, नई नौकरियां आएंगी और भारत ‘मेड इन चाइना’ के ठप्पे से छुटकारा पा सकेगा। लेकिन असली सवाल यह है कि उद्योगों ने इस स्कीम को सीरियसली लिया या फिर इसे सरकारी घोषणाओं की लंबी लिस्ट में डाल दिया?
किन-किन सेक्टरों में बंट रही है ये सरकारी टॉफी?
अब बात करते हैं उन भाग्यशाली उद्योगों की, जिनके लिए यह योजना लागू हुई। सरकार ने 14 सेक्टरों को चुना है, यानी उतने ही जितने सास-बहू सीरियल में किरदार होते हैं। इनमें शामिल हैं—
- इलेक्ट्रॉनिक्स और मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग – सरकार चाहती है कि देश में मोबाइल बने, लेकिन असल में युवा केवल रील बनाने में व्यस्त हैं!
- ऑटोमोबाइल और ऑटो कंपोनेंट्स – सरकार का सपना है कि भारत का अपना इलेक्ट्रिक वाहन ब्रांड हो, लेकिन पेट्रोल-डीजल की कीमतें देखकर जनता को अब साइकिल ही ईको-फ्रेंडली लगने लगी है।
- टेक्सटाइल और गारमेंट्स – “मेक इन इंडिया” के तहत कपड़े तो बन रहे हैं, लेकिन पहनने वाले ही नहीं बच रहे, क्योंकि लोग पहले ही ऑनलाइन शॉपिंग में फंस चुके हैं।
- फार्मा और मेडिकल डिवाइसेस – सरकार का कहना है कि भारत दवाइयों का हब बनेगा, लेकिन मरीज अब डॉक्टर की जगह गूगल से इलाज पूछने लगे हैं।
- सोलर एनर्जी और एडवांस्ड केमिस्ट्री बैटरी – लोग सोचते थे कि “सूरज की रोशनी मुफ्त में मिलती है”, लेकिन अब सरकार सोलर बैटरी के नाम पर इसकी भी कीमत वसूल रही है।
- आईटी हार्डवेयर – लैपटॉप और कंप्यूटर भारत में बनें, लेकिन स्टूडेंट्स का असली सवाल यह है कि इंटरनेट का डेटा कब फ्री होगा?
- टेलीकॉम – 5G आया, लेकिन अभी भी गांवों में नेटवर्क खोजने के लिए छत पर चढ़ना पड़ता है!
- खाद्य प्रसंस्करण (Food Processing) – सरकार चाहती है कि पैकेज्ड फूड बने, लेकिन जनता को फ्री के गोलगप्पे ज्यादा पसंद हैं।
- स्टील, एल्युमिनियम और अन्य धातुएं – देश में स्टील उत्पादन बढ़ेगा, लेकिन मकान बनवाने के लिए अब भी कर्ज़ ही लेना पड़ेगा।
- ड्रोन और रोबोटिक्स – ड्रोन बनेंगे, लेकिन लोग सोच रहे हैं कि शादी में वीडियो शूटिंग के अलावा इनका और क्या काम है?
ये सारे सेक्टर वैसे ही सरकारी मदद की आस लगाए बैठे थे जैसे सरकारी नौकरी के उम्मीदवार रिजल्ट का इंतजार करते हैं।
पीएलआई योजना का असर: बुलेट ट्रेन की स्पीड या बैलगाड़ी की चाल?
अब सवाल यह उठता है कि इस योजना से वाकई कुछ बदला या फिर यह भी सरकारी घोषणाओं के महासागर में एक और गोता लगा गई?
1. मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर – “बॉडी बिल्डर बनो या सिर्फ प्रोटीन पाउडर खाओ?”
मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर ने इस योजना का अच्छा फायदा उठाया है। भारत में अब iPhone बनने लगे हैं, लेकिन अफसोस की बात यह है कि इनकी कीमत अभी भी अमीरों के लिए ही फिट बैठती है। यानी फैक्ट्री भारत में, लेकिन मोबाइल खरीदने की ताकत अभी भी सीमित।
2. ऑटोमोबाइल सेक्टर – “EV की रफ्तार या बैलगाड़ी का धक्का?”
इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रमोट करने के लिए सरकार ने जमकर इंसेंटिव दिए, लेकिन चार्जिंग स्टेशन ऐसे गायब हैं जैसे सरकारी योजनाओं का बजट। लोग सोच रहे हैं कि गाड़ी खरीदें या फिर बैटरी चार्जिंग के लिए मंदिर में जलती हुई ज्योत का इस्तेमाल करें?
3. टेक्सटाइल – “कपड़े बढ़े या फैशन के नाम पर कपड़े कम हुए?”
भारत में कपड़ा उत्पादन बढ़ा, लेकिन अजीब बात यह है कि फैशन इंडस्ट्री में कपड़े छोटे होते जा रहे हैं। यानी उत्पादन तो हो रहा है, लेकिन लोग कम पहन रहे हैं!
4. फार्मा और मेडिकल – “दवा बनी, पर मरीजों का क्या?”
भारत दुनिया का फार्मा हब बनने की ओर बढ़ रहा है, लेकिन आम आदमी अभी भी इलाज के नाम पर झोलाछाप डॉक्टरों के भरोसे बैठा है। यानी दवा की उपलब्धता बढ़ी, लेकिन अस्पताल में बेड मिलना अभी भी सपना है।
निष्कर्ष: पीएलआई योजना सफल हुई या सिर्फ कागजों में चली?
अगर निष्कर्ष निकालें, तो यह योजना पूरी तरह असफल नहीं हुई, लेकिन यह भी कहना गलत होगा कि देश में औद्योगिक क्रांति आ गई है। यह योजना ठीक वैसी ही है जैसे नई जिम मेंबरशिप—अगर आप मेहनत करेंगे, तो रिजल्ट दिखेगा, वरना पैसा डोनेट हो जाएगा।
सरकार ने उद्योगों को सपोर्ट दिया, लेकिन असली सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि कंपनियां इसे कितना गंभीरता से लेती हैं। फिलहाल, उत्पादन बढ़ा है, लेकिन रोज़गार बढ़ने का आंकड़ा अभी भी सरकारी भाषणों तक ही सीमित है।
तो कुल मिलाकर, पीएलआई योजना एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन इसे सिर्फ सरकारी शोपीस न बनाकर वाकई में धरातल पर उतारना जरूरी है। वरना यह भी उन हजारों योजनाओं की तरह होगी, जिनका जिक्र चुनावी भाषणों में तो होता है, लेकिन ज़मीन पर नहीं दिखती!
पोपट लाल लेखन की दुनिया के वो शख्स हैं, जो शब्दों को ऐसी कलाबाज़ी खिलाते हैं कि पाठक हंसते-हंसते कुर्सी से गिर जाएं! गंभीर मुद्दों को भी ये इतनी हल्की-फुल्की भाषा में परोसते हैं कि लगता है, जैसे कड़वी दवाई पर चॉकलेट की परत चढ़ा दी गई हो। इनका मकसद बस इतना है—दुनिया चाहे कुछ भी करे, लोग हंसते रहना चाहिए!
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